ना शरीर हु मै; नही हु प्राण ,
ना मै बुध्दी हु, नही हु चंचल मन।
न लगे मुझे सर्दी , नही गर्मी है मुझे लगती,
भुख प्यास सदैव मेरी, महान ज्ञान की कामना है करती ।
आलोचना स्वयं की करता कर्णकर्क्कश आलोचक हु मै,
कर्ता भी हु, साक्षी भी हु ; स्वंय का प्रशंसक भी हु मै ।
मुझे क्या पाना है, मुझको क्या खोना है ?
मै तो मुक्त हु और निर्भय भी ।
मै कौन हु कहा से आया, किसीको क्यो है बतलाना,
मै तो अजर हु, और अमर भी ॥
रचना - हेमंत ववले